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श्रद्धांजलि - सत्यदेव प्रसाद अग्रवाल

रिपोर्ट: VBN News Desk332 दिन पहलेव्यक्तित्व

बाबा सच्चे अर्थों में सनातन संस्कृति के पक्षधर और पोशक थे।

श्रद्धांजलि - सत्यदेव प्रसाद अग्रवाल

Writer : नवीन कुमार सहाय ### 25 दिसम्बर विशेष

पिछले वर्ष आज के ही दिन बाबा यानी सत्यदेव प्रसाद अग्रवाल जी का जाना और अकस्मात ऐसे जाना एक अजीब सी हूक में डूबे हुए हैं निरंतर यह महसूस हो रहा है की अच्छी उम्र के होकर भी वह असमय चले गए मैंने बहुतों को देखा है, उम्र से पहले बुढाते, उम्र आने पर बुढाते, उसकी असहायता के सामने घुटने टेकते , विदीर्ण होते , बिलखते अकेले होते। लेकिन मैंने नहीं देखा उन्हें बुढाते, बुढ़ापे के सामने घुटने टेकते। वे ऐसे चिर युवा थे ,जो अपनी सांसों का पूरा हिसाब मुस्तैदी से, स्वयं से लेते रहे। सांसों की हर बूंद उनके लिए घोर सक्रियता का पर्याय थी यही वजह है कि उन्हें अपने मृत्यु का एहसास पहले ही हो चुका था इसलिए उन्होंने लिखा की दस्तक पड चुकी है काले कौवे की मेरे मुंडेर पर । हाड कपा देने वाली कड़ाकेदार ठंड ने अपने अनेक डरावने रूप दिखाये, उन्हें मात करना चाहा, रोग- शोक दोनों ही माध्यम से, मगर वह रोग -शोक का गरल पीकर पूरी जिजीविषा के साथ खड़े रहे। खड़े ही ना रहे ,उसे गहरे सृजनात्मक बनाकर जीते रहे।

मुझे याद आ रहा है जब राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण हेतु धन संग्रह का आग्रह मैंने किया तो उम्मीद थी की थोड़ी बहुत राशि तो मिल ही जाएगी ,परंतु यह उम्मीद ही नहीं थी कि वह इतनी बड़ी राशि इस पुनीत कार्य के लिए देंगे। इतना ही नहीं उन्होंने छतरपुर अवस्थित गुलाबचंद प्रसाद अग्रवाल कॉलेज में एक भव्य आयोजन किया जिसमें तत्कालीन प्रांत प्रचारक रवि जी उपस्थित हुए और हम सभी को उनका बौद्धिक प्राप्त हुआ।

बाबा सच्चे अर्थों में सनातन संस्कृति के पक्षधर और पोशक थे। उनके पास जो भी आया चाहे वह किसी विचारधारा व पार्टी के लोग हो उन्होंने उनका सहयोग किया परंतु उनकी आत्मा तो कॉलेज में बस्ती थी। उनके साथ कॉलेज के विस्तार शैक्षणिक कार्यों में शिक्षकों एवं छात्रों की सहभागिता पर चर्चा करता तो घंटा समय कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता था।

प्रत्येक दिन मैं उनकी कार से, साथ में कॉलेज जाता पूरा सफर एक अलग उमंग और उत्सव में बीत जाता और कॉलेज पहुंचते ही हम सभी अपने-अपने कार्यों को निष्पादित करने में लग जाते कई बिंदुओं पर मैं नाराज हो जाता तो वह मुझे समझाते और डांटते, अब कौन इतनी आत्मीयता से डांटेगा हम सबके भीतर की प्रतिभा को जगाने के लिए कौन प्रेरित करेगा। पर ऐसा लगता है की वह कहीं गए नहीं है, वे है और अपनी वात्सल दृष्टि से हम सबको देख रहे हैं। सांत्वना दे रहे हैं मऔर कह रहे हैं -" मेरे जाने का शौक मत करो, मैंने जो अधूरे कार्य छोड़े हैं उन्हें आगे बढ़ाओ। मैं गया कहां हूँ इतने सारे असंख्य के लोगों के मन में हूँ।" यही तो चरम सत्य है गीता का, उपनिषद का....

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